भगतसिंह एवं साथियों द्वारा
भारतीय नौजवान सांस्कृतिक संघ (इयूका)
की स्थापना
पंज दरियावां की भूमि पंजाब। जिसने समय-समय पर कितने सूरवीरों को अपने यहाँ जन्म दिया। इनमें पोरस, महाराजा रणजीत सिंह, अहमद खां खरल, करतार सिंह सराभा और भगत सिंह का नाम प्रमुख रूप से अपना अलग ही स्थान रखता है। सरदार भगत सिंह के पूर्वज भारत के पंजाब राज्य में जालंधर से चंडीगढ़ मार्ग पर स्थित नवां शहर वर्तमान शहीद भगत सिंह नगर के खटकड़ कलां गांव के निवासी रहे हैं। जो महाराजा रणजीत सिंह की फौज में कार्यरत थे। उपरांत वर्तमान पाकिस्तान में स्थित लायलपुर के 105 जीबी चक बंगा में रहने लगे। यहीं पर 27 सितंबर उन्नीस सौ सात में सरदार किशन सिंह संधु एवं माता विद्यावती कौर के घर बालक भगत सिंह का जन्म हुआ। आप सब को यह बता दूं कि यह बंगा गाँव श्री गुरु नानक देव जी की जन्म स्थली से मात्र 65 किलोमीटर दूरी पर है।
सरदार भगत सिंह के पिता एवं चाचा गदर पार्टी के सक्रिय सदस्य थे। जो ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध क्रांतिकारी आंदोलन चला रहे थे। जिसके चलते भगत सिंह के पिता एवं चाचा अंग्रेजों की जेल में अक्सर बंदी बना लिए जाते, इतना ही नहीं इनके एक चाचा सरदार स्वर्ण सिंह संधु तो अंग्रेजों के जुल्म की बदौलत तपेदिक के शिकार हो कारागार में ही शहीद हो गए। अपनी चाचियों को वह अक्सर अपने पतियों के बिछोड़ो से दु:खी और व्याकुल होते हुआ देखता बड़ा हो रहा था। इन सारी घटनाओं का असर भगत सिंह के ऊपर भी इतनी जोर से हो रहा था कि भगत सिंह के मन में फिरंगियों की सल्तनत और अत्याचारों के विरुद्ध गुस्सा भर गया तथा देश की आजादी का मार्ग चुन लिया। अपनी जिंदगी के अंतिम समय फांसी के फंदे से भी नहीं डरें और इंकलाब जिंदाबाद के गगन भेदी नारे लगाते हुए संपूर्ण आजादी के लिए बिना किसी समझौते के क्रांति की अलख जगाते हंसते - हंसते शहीद-ए-आजम बन गए । इंकलाब जिंदाबाद!
27 सितंबर 1907 को सरदार किशन सिंह संधु और उनके दोनों भाई स्वर्ण सिंह संधु और सरदार अजीत सिंह संधु अंग्रेजों की जेल से रिहा होकर आए, उसी समय 27 सितंबर को भगत सिंह का जन्म भी हुआ और घर में दोहरी खुशी के माहौल में दादा- दादी, स्वर्ण सिंह संधु ने कहा कि यह तो कोई बहुत ही भाग्यों वाला भगत हमारे घर में जन्मां है। जिसके आने पर घर में खुशियां भर आई हैं। इस तरह इस नन्हें बच्चे का नामकरण स्वतः ही भगत सिंह हो गया।
बालक भगतसिंह अपनी माँ को उदास और चिंतित देख माँ से पूछता है!
भगत सिंह:- "माँ !"
"माँ यह पुलिस वाले चाचा जी और दार जी को पकड़ कर अपने साथ क्यों ले गए हैं!"
माता विद्यावती कौर :-"बेटा हम गुलाम हैं, हमारे देश में इन अंग्रेजों का राज्य जो है।"
भगतसिंह :- "माँ गुलाम क्या होता है, और हमारे ऊपर अंग्रेजों का राज्य क्यों है?"
माता विद्यापति कौर :- "बेटा! रात बहुत हो गई है। अब तू सोजा यह बहुत लंबी बात है, फिर कभी तुझे बताऊंगी!"
भगतसिंह:- "नई माँ मुझे अभी बताओ, मुझे अभी सब कुछ आप से सुनना है और जानना है!"
माता विद्यापति कौर :- "बहुत साल पुरानी बात है, जब अंग्रेजों ने बादशाह जहांगीर से अपने देश में आकर व्यापार करने की इजाजत मांगी, उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी बनाकर व्यापार में बहुत मुनाफा भी कमाया। देश के तमाम राजाओं और नवाबों को अपना दोस्त भी बनाया। किंतु औरंगजेब की मौत के बाद जब मुग़ल सल्तनत कमजोर होकर बिखरने लगी, तब इन गौरों ने अपना असली रूप दिखाना शुरू किया तथा बहुत ही चालाकी से देश के तमाम नवाबों - राजाओं को आपस में लड़ावाकर इन्हें कमजोर कर दिया। फिर अपने चाटूकारों को गद्दियों पर बैठा कर देश में अपना राज कायम कर,यह तमाम तरह के अत्याचार लोगों पर करते चले आ रहे हैं!" - "हमारे जंगल खेत खदानों पर अपना अधिपत्य जमाते हुए लगान वसूली के नाम पर हमारी फसलों को उजाड़ना और घरों में आग लगा देना इनके लिए मामूली-सी बात है।" - "अंग्रेज हम हिंदुस्तानियों को कुत्ता- बिल्ली और जानवरों से अधिक कुछ नहीं समझते बेटा!"
- "यह फिरंगी कुछ लाख कि संख्या में हम करोड़ों लोगों पर अत्याचार-जुल्म करते चले आ रहे हैं!"
भगतसिंह :- लेकिन माँ,लाख तो करोड़ों से बहुत कम होते हैं! फिर यह कुछ लाख हम करोड़ों को गुलाम कैसे बना सकते हैं!" -"माँ हम देश से निकाल कर इन्हें भगा क्यों नहीं देते ?"
भगतसिंह के आदर्श करतार सिंह सराभा की जन जाग्रति!
सरदार करतार सिंह सराभा के जागृति गीतों ने ऐसा जादू बिखेरा की अमेरिका - कनाडा के साथ सारे पंजाब में अंग्रेजों के विरुद्ध आम लोगों ने 'गदर पार्टी' और उसके द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन की आग पंजाब के शहर - शहर और गाँव - गाँव में फैलने लगी,और इससे अंग्रेजी हुकूमत के पैरों नीचे से जमीन खिसकने लगी। जिसे दबाने के प्रयास फिरंगी सरकार ने हिंसा तेज कर दी । तथा किसी न किसी बहाने से आवाम के ऊपर क्रूरतम तरिकों से जुल्म करना जारी रखा। वहाँ भी निहत्थे आंदोलनकारियों को अमृतसर के जलियांवाला बाग 13 अप्रैल 1919 को शांति एवं अहिंसात्मक रूप से रॉलेक्ट एक्ट का विरोध कर रहे निर्दोष महिलाओं- बच्चों तथा बुजुर्गों को जनरल डायर ने अंधाधुंध गोलीबारी करके बैसाखी के पर्व को खूनी होली बना दिया। इससे अधिक कायराना कृत्य क्या होगा । इस हत्यारे डायर के विरुद्ध देश के तमाम अखबार चीख- चीखकर बयान दे रहे थे। तो वहीं जलियां वाले बाग का कुँआ लाशों से पटा हुआ, इस खूनी मंजर को बयां कर रहा। और वहाँ की जमीन खून से भरी इसकी गवाही दे रही कि हमारे ही देश में हमारे लोगों को बिना किसी जुर्म के बेरहमी से मार डाला गया। दूसरी तरफ अँग्रेज सरकार इस जंघय हत्याकांड पर पर्दा डालती रेडियो पे झूठ पर झूठ निरंतर प्रसारित कर रही थी। इसका सच जानने के लिए बालक भगत सिंह अपने आप को रोक नहीं सका और मीलों पैदल चलकर जलियांवाला बाग पहुँचकर वहाँ शहीद हुए लोगों के खून से सनी हुई मिट्टी को माथे लगाकर अपने साथ घर लाकर माँ को दिखाता है ।
मोहनदास करमचंद गांधी अर्थात जिन्हें लोग महात्मा गांधी तो कुछ लोग बापू जी कहकर संबोधित करते हैं। इनकी एक आवाज पर सारा देश उठ खड़ा होता है। इनके द्वारा देशवासियों को असहयोग आंदोलन करने के आह्वान इस तरह करते हैं-" हम लड़ेंगे, जरूर लड़ेंगे लेकिन हिंसा से नहीं सिर्फ अहिंसा से, यही इस आजादी की लड़ाई में हमारा सबसे बड़ा हथियार होगा असहयोगआंदोलन (TotalNon cooperation movements) कोई भी भारतवासी ब्रिटिश सरकार का साथ ना दे। सभी सरकारी नौकर अपनी-अपनी सरकारी नौकरी छोड़ दें, मजदूर फैक्ट्रियों से निकल आए, छात्र- बच्चे सरकारी स्कूलों-कॉलेजों में पढ़ाई करना बंद कर दें ! कोई किसी भी प्रकार का टैक्स नहीं दें। विदेशी सामान और विदेशी कपड़ों का उपयोग बंद कर दें। इनकी होली जलायें ! यदि सब ने इस काम में मेरा साथ दिया तो मैं यह वायदा करता हूँ कि ब्रिटिश हुकूमत घुटने टेकने को मजबूर हो जाएगी तथा एक वर्ष के भीतर ही हमें ब्रिटिश हुकूमत की गुलामी से आजादी मिल जाएगी।"
महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन का असर देश के कौने- कौने में पड़ा। जिसके चलते लोगों ने अपनी सरकारी नौकरियां छोड़ दी, मजदूरों ने मीलों- फैक्ट्रियों में जाना बंद कर दिया। छात्र अपनी पढ़ाई त्यागकर गांधी जी के असहयोग आंदोलन में कूंद पड़े। जिधर देखो उधर ही विदेशी सामान और कपड़ों की होलियाँ जलने लगीं। भगत सिंह भी कहाँ पीछे रहने वाले थे! गांधी जी और उनके आंदोलन से प्रभावित होकर न सिर्फ अपनी पढ़ाई छोड़ दी, बल्कि इस असहयोग आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लेते हुए विदेशी सामान को जलाने में तथा आंदोलनकारियों के जत्थों के नाश्ता- पानी तथा भोजन और उन्हें ठहरने के लिए उचित प्रबंधन के कार्यों को अपने साथियों के साथ बड़े ही उत्साह पूर्वक करने लगे। अभी यह गांधी जी को अपना तथा देश का मसीहा मानते हुए उनके द्वारा चलाए जा रहे अहिंसात्मक रूप से देश की आजादी में तन-मन-धन से समर्पित थे। देशवासियों को भी लगने लगा था कि फिरंगी सरकार की गुलामी से अब शीघ्र ही मुक्ति मिल जायेगी। तब ही अचानक से चोरी चोरा की घटना घटित हो जाती है। और गाँधीजी इस हिंसात्मक घटना से इतने अधिक नाराज हो जाते हैं कि इसकी वस्तु स्थिति को सही तरीके से समझे बिना और इसके संबंध में बिना किसी अपने लोगों से चर्चा किये एकाएक अपने असहयोग आंदोलन समाप्ति की घोषणा कर देते हैं। जब देश के अंदर असहयोग आंदोलन से जुड़े लोगों को मालूम चलता है कि गाँधी जी ने असहयोग आंदोलन खत्म कर दिया है, तो यह लोग अपने को ठगा हुआ और असहाय महसूस करते हैं।
वास्तविक रूप से देखा जाये तो यह बात स्पष्ट तौर पर सामने आती है कि गाँधी जी का असहयोग आंदोलन को बंद करना भगत सिंह के जीवन में बहुत बड़े परिवर्तन का कारण बना और गाँधी जी के इस कृत्य की निंदा ही नहीं की, बल्कि फिर से नेशनल कॉलेज में प्रवेश लेकर अपनी पढ़ाई शुरू कर दी तथा दुनिया की तमाम क्रांतियाँ और उसके इतिहास को समझने के लिए अपना निरंतर प्रयास करते हुए लोगों में जाग्रति लाने तथा अँग्रेज हुकूमत के विरुद्ध सबको एक होने का आव्हान के साथ-साथ लगातार संघर्ष की धार तेज करने कितने ही नाटकों का मंचन अपने साथियों के साथ करते हुए लाला लाजपतराय जी से जीवंत संपर्क बनाये रहे।
भगत सिंह के अंदर ज्ञान की पिपासा तथा परिस्थितियों को तुरंत समझने की अद्भुत शक्ति थी, जिसके चलते वह अपने प्रश्नों से सभी को हक्का-बक्का कर देते थे। वही घंटों तक बिना रुके, बिना थके, कॉलेज और शहर की तमाम लाइब्रेरियों में लगातार विभिन्न विषयों का अध्ययन किया करते। भगत सिंह की अध्ययनशीलता के सभी लोग मुरीद हो चुके थे। जयचंद्र विद्यालंकार जी भी समय- समय पर भगत सिंह को तमाम बातों के बारे में समझने पूरा- पूरा सहयोग भी करते रहते थे। इनदिनों भगत सिंह के सम्मुख एक परेशानी आ खड़ी हुई,वो यह कि भगत सिंह के परिजन जल्दी से जल्दी उसकी शादी करना चाह रहे थे। किंतु भगत सिंह देश की आजादी की खातिर शादी नहीं करने का पक्का प्रण कर लिया था। जब यह बात विद्यालंकार जी को मालूम चली भगत सिंह घर- परिवार सब को छोड़कर क्रांति के लिए निकलने की सोच रहा है। उन्होंने खुद बहुत समझाया, जब वह समझाने में सफल नहीं हुए तो उन्होंने अमृतसर से सरदार तेजा सिंह संधु जिनकी भगतसिंह सहित वो स्वयं भी बातें मानते थे,और मार्गदर्शन का बहुत इज्ज़त सम्मान करते थे। इसलिए उन्हें सारी बातें बताते हुए यहाँ अतिशीघ्र आने का निवेदन किया। संदेश मिलते ही सरदार जी आकर भगत सिंह और साथियों के साथ बैठक करते हैं। और सर्वसम्मति से फैसला होता है कि पहले लोगों को जन जागृति लाने के लिए सरदार करतार सिंह सराभा की रीति नीति से काम करना होगा। इसके लिए हम अपना एक सांस्कृतिक संगठन तैयार करें, जो सबसे पहले पंजाब में अपना काम स्टेज के माध्यम से शुरू करे,फिर इसे अखिल भारतीय स्तर तक प्रचारित-प्रसारित किया जा सके। अतः यह निष्कर्ष निकला कि संगठन का नाम "इण्डियन यूथ कल्चर्ल एशोसियेशन (इयूका) अर्थात् " भारतीय नौजवान सांस्कृतिक संघ" होगा। 17 दिसंबर 1924,बुधवार को सियालकोट के ऐतिहासिक मैदान पर " इयूका" की स्थापना के साथ-साथ सरदार तेजासिंह संधु को इसका अध्यक्ष बनाने की घोषणा की गई।
भगतसिंह ने इयूका की स्थापना के अवसर पर आयोजित सम्मेलन में सियालकोट के मैदान पर अपना लम्बा भाषण शुरू करते हुए बोला कि -"आज यहाँ इस सम्मेलन में दूर-दूर से आए तमाम नौजवान साथियों को इस आयोजन में उपस्थित होने की लख - लख बधाइयाँ देता हूँ। साथियों आज हमारा देश अव्यवस्था की स्थिति गुजर रहा है। चारों तरफ एक दूसरे के प्रति अविश्वास तथा हताशा का साम्राज्य निर्मित है। देश के नेताओं ने आदर्श व आस्था खोदी ही है। जनता को इन पर से पूरी तरह विश्वास खत्म हो गया है। देश की आजादी के रहनुमाओं के पास कोई एजेंडा नहीं है। चारों तरफ अराजकता का बोलबाला है। लेकिन किसी भी राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में एक अनिवार्य एवं आवश्यक दौर है। इसी नाजुक घड़ी में कार्यकर्ताओं की प्रतिबद्धता की परीक्षा होती है, चरित्र का निर्माण होता है, वास्तविक कार्यक्रम बनता है,तब कहीं नए उत्साह,नए विश्वास और नए जोशो -खरोश के साथ कार्य आरंभ होता है । अतः इसमें मन ओछा करने की बात नहीं है।"
" अपने आप में हम एक नए युग के द्वार पर खड़े हुए भाग्यशाली हैं। अँग्रेज नौकरशाही के बड़े पैमाने पर गुणगान करने वाले गीत अब सुनाई नहीं देते । अँग्रेज का हमसे ऐतिहासिक प्रश्न है कि 'तुम तलवार से प्रशासित होंगे या कलम से ?' अब ऐसा नहीं रहा कि उसका उत्तर न दिया जाता हो। लार्ड बर्कनहेड के शब्दों में 'हमने भारत को तलवार के सहारे जीता और तलवार के बल से ही उसे अपने हाथ में रखेंगे।' इस खरेपन ने अब सब कुछ साफ कर दिया है। जलियांवाला और मानावाला के अत्याचारों के ज्ञात होने के बाद यह उद्धत करना कि 'अच्छी सरकार स्वशासन का स्थान नहीं ले सकती', बेहूदगी ही कही जायेगी। यह बात स्वतः स्पष्ट है। "
" भारत के उद्योग धंधे के पतन और विनाश के बतौर क्या रमेश चंद्र दत्त, विलियम डिगबी तथा दादा भाई नौरोजी के सारे ग्रंथों का उदाहरण देने की आवश्यकता होगी? क्या इस बात को साबित करने के लिए कोई भी प्रमाण जुटाना पड़ेगा कि अपनी उपजाऊ भूमि तथा खदानों के बाद भी आज भारत सबसे गरीब देशों में से एक है, कि भारत जो अपनी महान सभ्यता का अनुपात केवल पाँच प्रतिशत है? क्या आप लोग यह जानते नहीं हैं कि भारत में सबसे अधिक लोग मरते हैं,और यहाँ बच्चों की मौत का अनुपात दुनिया में सबसे ऊंचा है? प्लेग, हैजा, इन्फ्लूएंजा तथा इस प्रकार की अन्य महामारियाँ आय दिन की व्याधियां बनती जा रहीं हैं। बार-बार यह सुनना कि हम स्वशासन के योग्य नहीं हैं, एक अपमान जनक बात नहीं है? यह तौहीन की बात नहीं है कि गुरु गोविंद सिंह, शिवाजी और हरीसिंह जैसे शूरवीरों के बाद भी हमसे कहा जाय कि हम में अपनी रक्षा करने की क्षमता नहीं है? खेद है कि हमने अपने वाणिज्य और व्यसाय को उसकी शैशवावस्था में ही कुचला जाते नहीं देखा? जब बाबा गुरुदत्त सिंह ने 1914 में गुरुनानक स्टीमशिप चालू करने का प्रयास किया था, तो दूर देश कनाडा में और भारत आते समय उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया गया। और अंत में बज-बज के बंदरगाह पर उन साहसी मुसाफिरों का गोलियों से स्वागत किया गया। भारत में जब जहाँ एक द्रौपदी के सम्मान की रक्षा में महाभारत जैसा युद्ध लड़ा गया था, वहीं 1919 में दर्जनों द्रोपदियों को बेइज्जत किया गया, उनके नंगे चेहरों पर थूका गया। क्या हमने यह सब नहीं देखा ? फिर भी हम मौजूदा व्यवस्था से संतुष्ट हैं। क्या यह जीने योग्य जिंदगी है?"
"क्या हमें यह महसूस कराने के लिए कि किसी दैवीय ज्ञान या फिर आकाशवाणी की आवश्यकता है, क्या हम अवसर की प्रतीक्षा करेंगे या किसी अज्ञात का इंतजार है कि हमें महसूस कराये कि हम दलित लोग हैं? या फिर कोई ऐसा जादू हो जाये, कि हम आजाद हो जायें? क्या हम आजादी के बुनियादी सिद्धांतों से अनभिज्ञ हैं? 'जिन्हें आजाद होना है उन्हें स्वयं चोट करनी पड़ेगी।' नौजवानों जागो, उठो, हम काफी देर सो चुके हैं।"
"हमारी नौजवानों से अपील है क्योंकि नौजवान बहादुर होते हैं, उदार एवं भावुक होते हैं तथा भीषण अमानवीय यंत्रणाओं को मुस्कराते हुए बर्दाश्त कर लेते हैं और बगैर किसी प्रकार की हिचकिचाहट मौत का सामना करते हैं। मानव-प्रगति का संपूर्ण इतिहास नौजवान आदमियों तथा औरतों के खून से लिखा है ! सुधार सदैव नौजवानों की शक्ति, साहस,आत्मबलिदान और भावनात्मक विश्वास के बल पर ही प्राप्त हुए हैं। ऐसे नौजवान जो भय से परिचित नहीं हैं और जो सोचने के बजाए अनुभव कहीं अधिक करते हैं।"
" क्या जापान के नौजवान नहीं थे, जिन्होंने पोर्ट आर्थर तक पहुँचने में सूखा रास्ता बनाने के उद्देश्य से अपने आपको सैकड़ों की तादाद में खाइयों में नहीं झोंक दिया था ? और जापान आज विश्व के सबसे आगे बढ़े हुए देशों में से एक है। क्या पोलैंड के नौजवान नहीं थे जिन्होंने पिछली पूरी शताब्दी भर बार-बार संघर्ष किये, पराजित हुए और फिर बहादुरी के साथ लड़े? और आज एक आजाद पोलैंड हमारे सामने है। इटली को आस्ट्रिया के जुए से किसने आजाद किया था? तरुण इटली ने!"
"इसी तरह तरुण तुर्कों, चीन के नौजवानों और रुसी नौजवानों ने जो क्रांति की, उसे आप रोज समाचार-पत्रों में नहीं पढ़ते हैं? सब जगह नौजवान ही निडर होकर बगैर किसी हिचकिचाहट के लम्बी-चौड़ी उम्मीदें बांधें बगैर लड़ सकते हैं।"
"जबकि हम भारतवासी,क्या कर रहे हैं? पीपल की एक डाल टूटते ही हिन्दुओं की धार्मिक भावनाएं चोटिल हो उठती हैं! बुतों को तोड़ने वाले मुसलमानों के ताजिए नामक कागज के बुत का कोना फटते ही अल्लाह का प्रकोप जाग उठता है और फिर वह 'नापाक हिन्दुओं के खून से कम किसी वस्तु से संतुष्ट नहीं होता! मनुष्य को पशुओं से अधिक महत्व दिया जाना चाहिए, लेकिन यहाँ भारत में वे लोग पवित्र पशु के नाम पर एक-दूसरे का सर फोड़ते हैं।"
" हमारे बीच बहुत से लोग हैं जो अपने आलसीपन को अंतर्राष्ट्रीयतावाद की निर्थक बकवास के पीछे छिपाते हैं। जब उनसे अपने देश की सेवा करने को कहा जाता है तो वे कहते हैं, 'श्रीमान जी हम तो जगत बंधु हैं और सार्वभौमिक भाईचारे में विश्वास करते हैं। हमें अंग्रेजों से नहीं झगड़ना चाहिए। वे हमारे भाई हैं।' क्या खूब विचार है,क्या खूबसूरत शब्दावली है। लेकिन वे इस उलझाव को नहीं पकड़ पाते। सार्वभौमिक भाईचारे के सिद्धांत की मांग है कि मनुष्य द्वारा मनुष्य का और राष्ट्र द्वारा राष्ट्र का शोषण असंभव बना दिया जाये, सबको बिना किसी भेदभाव के अवसर प्रदान किये जायें। भारत में ब्रिटिश शासन इन सब बातों का ठीक उल्टा है और हम उससे किसी प्रकार का सरोकार नहीं रखेंगे।"
" बहुत से मनुष्य सोचते हैं कि समाज -सेवा (अनु संकुचित अर्थों में जिनसे हमारे देश में इस शब्द का प्रयोग किया और समझा जाता है ) हमारी बीमारियों का इलाज है और देश सेवा सबसे अच्छा तरीका है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बहुत से ईमानदार नौजवान सारी जिंदगी गरीबों में अनाज बांटकर या बीमारों की सेवा करके ही संतुष्ट हो जाते हैं। यह अच्छे और आत्म त्यागी लोग हैं, लेकिन वे समझ पाने में असमर्थ हैं कि भारत में भूख और बीमारी की समस्या को खैरात के माध्यम से हल नहीं किया जा सकता। "
" धार्मिकता अंधविश्वास और कट्टरपन हमारी प्रगति में बहुत बड़े बाधक हैं। वे हमारे रास्ते के रोड़े साबित हुए हैं, और हमें उनसे हर हालत में छुटकारा पाना होगा। 'जो चीज आजाद विचारों को बर्दाश्त नहीं कर सकती उसे समाप्त हो जाना चाहिए।' इसी प्रकार और भी बहुत सी कमजोरियां हैं, जिन पर हमें विजय पानी है। हिंदुओं का दकियानूसीपन और कट्टरपन, मुसलमानों की धर्मांधता तथा दूसरे देशों के प्रति लगाव और आमतौर पर सभी संप्रदायों के लोगों का संकुचित दृष्टिकोण आदि बातों का विदेशी शत्रु हमेशा लाभ उठाता है। इस काम के लिए सभी समुदायों के क्रांतिकारी उत्साही नौजवानों की आवश्यकता है ।"
" हमने कुछ भी हासिल नहीं किया और हम किसी भी उपलब्धि के लिए कुछ भी त्याग करने को तैयार नहीं है। संभावित उपलब्धि में किसी संप्रदाय का क्या हिस्सा होगा, यह तय करने में हमारे नेता आपस में झगड़ रहे हैं। सिर्फ अपनी बुजदिली को और आत्मत्याग की भावना के अभाव को छुपाने के लिए असली समस्या पर पर्दा डाल कर नकली समस्याएं खड़ी कर रहे हैं। यह आराम तलब राजनीतिज्ञ हड्डियों के उन टुकड़ों पर आंखें गड़ाए बैठे हैं, जिन्हें विश्वास है कि सशक्त शासक गण उनके सामने फेंक सकते हैं। यह बहुत ही अपमानजनक बात है। इस प्रकार के लोग कभी भी किसी भी प्रकार का त्याग नहीं करते। हमें ऐसे लोगों की आवश्यकता है जो बगैर उम्मीदों के निर्भय हो, बिना किसी हिचकिचाहट के लड़ने को तैयार हों,और बिना किसी सम्मान के, बिना आंसू बहाए, बिना किसी प्रशस्ति गान के मृत्यु का आलिंगन करने को तैयार हों। इस प्रकार के उत्साह के अभाव में हम दो मोर्चों वाले उस महायुद्ध को, जिसे हमें लड़ना है, नहीं लड़ सकेंगे- दो मोर्चों वाला, क्योंकि हमें एक तरफ अंदरूनी शत्रु से लड़ना है, दूसरी तरफ बाहरी दुश्मन से। हमारी असली लड़ाई स्वयं अपनी योग्यता के खिलाफ है। हमारा शत्रु और कुछ हमारे अपने लोग निजी स्वार्थ के लिए उन का फायदा उठाते हैं। "
" नौजवान पंजाबियों, दूसरे प्रांतों के युवक अपने क्षेत्रों में जी तोड़के परिश्रम कर रहे हैं। नौजवान बंगालियों ने जिस जागृति तथा संगठन - क्षमता का परिचय दिया, उससे हमें सबक लेना चाहिए। अपनी तमाम कुर्बानियों के बावजूद हमारे पंजाब को राजनैतिक तौर पर पिछड़ा हुआ प्रांत कहा जाता है। क्यों? क्योंकि सैनिक उपजाति होने के बावजूद हम संगठित एवं अनुशासित नहीं है। हमें तक्षशिला विश्वविद्यालय पर गर्व है, लेकिन हमारे पास संस्कृति का अभाव है और संस्कृति के लिए उच्च कोटि का साहित्य होना चाहिए, जिस की संरचना सुविकसित भाषा के अभाव में नहीं हो सकती। दु:ख की बात है कि आज हमारे पास उनमें से कुछ भी नहीं है। "
" इसलिए आवश्यक है कि साहित्य और कलाएं रचनात्मक कलाकार की प्रतिभा से ऐतिहासिक सत्य पकड़ने की क्षमता से उपजाऊ बनती है तथा सामाजिक प्रभाव छोड़ती है। विद्यार्थियों- नौजवानों तथा श्रमिकों को क्रांतिकारियों के स्तर तक ऊंचा उठाने में और नए लोगों को शिक्षित करने में सहायक होती हैं। इन सभी के साथ बुद्धिमान लेखक, कलाकार, संगीतज्ञ आदि अच्छी तरह समझ लें कि आम जनता को उनकी रचनात्मकता की वैसी ही आवश्यकता है जैसे अन्न,पानी,हवा की।"
" संभावनाशील साथियों को उन की संभावना विकसित - परिष्कृत करने में पहल होनी चाहिए! साहित्य कला सांस्कृतिक ना तो बोध तक सीमित है न ही कोई अनुसंधान वरन् सूक्ष्मदर्शिता है, जो निरंतर प्रयासों द्वारा ही परिष्कृत विकसित होती है। देश के सामने उपस्थित सवालों का समाधान तलाश करने के साथ-साथ हमें जनता को आने वाले महान संघर्ष के लिए तैयार करना पड़ेगा। देश को तैयार करने भावी कार्यक्रम का शुभारंभ आदर्श वाक्य से होगा- 'क्रांति जनता द्वारा, जनता के हित में।' भारतीय क्रांति का मतलब केवल मालिकों की तब्दीली नहीं होगा। इसका अर्थ होगा नई व्यवस्था का जन्म, एक नई राजसत्ता। यह एक दिन एक वर्ष का काम नहीं है। कई दशकों का अद्वितीय आत्म बलिदान ही जनता को इस महान कार्य के लिए तत्पर्य कर सकेगा, और इस कार्य को केवल आप क्रांतिकारी साथी ही पूरा कर सकेंगे। क्रांति से मतलब लहूलुहान एक बम और पिस्तौल वाले आदमी से अभिप्राय नहीं है।"
"आप - हम सबके सामने जो काम है, वह बहुत कठिन है और साधन बहुत थोड़े हैं। लेकिन थोड़े किंतु निष्ठावान साथियों की लगन उन पर विजय पा सकती है। हमें अपने दिल में यह बात रख लेनी चाहिए कि 'सफलता मात्र एक संयोग है जबकि बलिदान एक नियम है।' जीवन अनवरत असफलताओं के जीवन हो सकते हैं- गुरु गोविंद सिंह जी को अजीवन जिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था, हो सकता है उससे अधिक नारकीय परिस्थितियों का सामना हमें करना पड़े। फिर भी यह कहकर कि अरे, यह सब तो भ्रम था,पश्चाताप नहीं करना होगा। "
"दोस्तों, इतनी बड़ी लड़ाई में अपने आप को अकेला पाकर हताश मत होना। अपनी शक्ति को पहचानो। अपने ऊपर भरोसा करो सफलता आपकी है। सब्र और होशो- हवास मत खोओ, साहस और आशा मत छोड़ो। स्थिरता और दृढ़ता को स्वभाव के रूप में अपनाओं। स्वतंत्रता पूर्वक गंभीरता से शांति और सब्र के साथ सोचें। भारतीय स्वतंत्रता के आदर्श को अपने जीवन में एकमात्र लक्ष्य के रूप में अपनाएं। अपने आपको बाहरी प्रभावों से दूर रहकर संगठित करना चाहिए न कि मक्कार तथा बेईमान लोगों के हाथों में खेलें,जिनके साथ कोई समानता नहीं है और जो हर नाजुक मौके पर आदर्श का परित्याग कर देते हैं। संजीदगी और ईमानदारी के साथ हम 'सेवा, त्याग, बलिदान' को अनुकरणीय वाक्य के रुप में अपना मार्ग दर्शक बनाएं कि 'राष्ट्र निर्माण के लिए हजारों अज्ञात स्त्री - पुरुषों के बलिदान की आवश्यकता होती है जो अपने आराम व हितों के मुकाबले, एवं अपने तथा अपने प्रियजनों के प्राणों के मुकाबले देश की अधिक चिंता करते हैं।' तब ही क्रांति सफल होती हैं।" -" वंदे मातरम् !"
इस अवसर पर यहाँ भगतसिंह ने अपना कालजयी भाषण दिया जो आगे चल कर नौजवान सभा के घोषणा पत्र के रूप में प्रस्तुत किया गया। जिसे सुनकर उपस्थित विद्यार्थी - नौजवान 'इयूका' के सदस्य बनकर पंजाब में जन जागरण करते क्रांति के लिए निकल पड़े। 'इयूका' के इस शपथ-पत्र पर सर्व प्रथम भगतसिंह ने अपने लहू से हस्ताक्षर किये उपरांत सुखदेव, भगवती चरण बोहरा, जयदेव गुप्त, सरदार तेजासिंह संधु सहित सबने अपने - अपने लहू से हस्ताक्षर कर "इयूका" के स्थापना पर सहर्ष स्वीकृति की मोहर लगा दी।
भगतसिंह का पंजाब और परिवार छोड़कर जाना !
भगत सिंह का अपने घर वालों के साथ बहुत ही मधुर रिश्ता था। सब लोग उन्हें बहुत ही प्यार करते थे। तथा वह भी अपने घरवालों को बहुत चाहते एवं सभी बड़ों का आदर - मान करते थे। किंतु इतना सब कुछ होने के साथ ही भगत सिंह ने मात्र 16 वर्ष की उम्र में जिस कारण घर छोड़ने का महत्वपूर्ण निर्णय लिया, वह केवल उस समय के लिए ही नहीं वरन् आज के क्रांतिकारियों के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण सीख है। उनके पिता सरदार किशन सिंह संधु वृद्ध दादी के कहने पर भगत सिंह की शादी कराने की पुरजोर कोशिश में लगे थे। भगत सिंह ने उनकी इस कोशिश पर अपनी गहरी आपत्ति की तथा अपनी शादी ना करने का स्पष्ट 'मनाही' करने का निर्णय पिताजी को कह दिया। जब किसी तरह से भी ऐसा करने में वह है असफल होने लगा तो अपने पिताजी को विवश होकर पत्र लिखने के साथ घर-परिवार छोड़ दिया। भगत सिंह ने पिताजी को संबोधित करते हुए पत्र में लिखा - "पूज्य पिताजी, मेरी जिंदगी मकसदे आला(उच्च उद्देश्य ) यानि आजाद-ए-हिन्द के असूल(सिद्धांत) के लिए वक्फ़ (दान) हो चुकी है। इसलिए मेरी जिंदगी में आराम और दुनियावी ख्वाहिशात(सांसारिक इच्छाएं) बायसे कशिश(आकर्षक)नहीं हैं। आपको याद होगा कि जब में छोटा था, तो बापूजी(दादाजी) ने मेरे संस्कार के वक्त एलान किया था कि मुझे खिदमते वतन(देश सेवा)के लिए वक्फ़ (अर्पित) कर दिया गया है। लिहाजा मैं उस वक्फ़ की प्रतिज्ञा पूरी कर रहा हूँ। उम्मीद है आप मुझे माफ फरमाएंगे।"
इसके जवाब में पिता जी ने लिखा-"मुझे और तुम्हें बूढ़ी दादी की इच्छा का सम्मान करना चाहिए। इसलिए यह मेरा आदेश है कि विवाह के मामले में तुम कोई अड़गा नहीं डालोगे और इसके लिए आनंद पूर्वक तैयार होगे!"
भगतसिंह ने दृढ़ता पूर्वक पिताजी के पत्र का जवाब इस प्रकार दिया- "आप केवल दादीजी के बारे में सोच रहे हैं,लेकिन हमारे 33 करोड़ देशवासियों की जो माँ है, भारत माता के दु:ख-तकलीफों के बारे में कौन सोचेगा? मैं समझता हूँ कि भारत माता को दु:ख-कष्टों से छुटकारा दिलाने के लिए हमें अपना सर्वस्व कुर्बान करना होगा, आत्म बलिदान देना होगा। मैं जानता हूँ बावजूद इसके मुझे शादी के लिए मजबूर किया जायेगा। इसलिए मैं घर छोड़कर जा रहा हूँ।"
घर छोड़ने के पूर्व भगत सिंह ने अपने मित्रों के नाम भी एक पत्र लिखा जो इस प्रकार है -"यदि इस गुलाम भारत में मेरी शादी होती है तो, वह केवल 'मौत' नामक दुल्हन से ही होगी। बाराती शवयात्री होंगे।" जरा सोचिए, इस उम्र में देश के आजादी आंदोलन में आत्म बलिदान करने में कितना अधिक रहने पर ऐसी विवेक और परिहास पूर्ण बातें लिखी जा सकती हैं! और अपने फैसले को मूर्त रूप देने और अपने शिक्षक जयचंद्र विद्यालंकार जी से निवेदन करता है। भगत सिंह की सारी बातें तथा दृढ़ निर्णय को देखते हुए बनारस के विशिष्ट क्रांतिकारी नेता शचींद्रनाथ सान्याल जी से मिलवाते हैं और इस तरह से भगत सिंह हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच. आर. ए.) में शामिल कर लिए जाते हैं।
लाहौर में शुद्ध क्रांतिकारी “भारत नौजवान सभा” का गठन !
भगतसिंह अपने कुछ विश्वस्त साथियों को साथ ले स्वयं पहल करते हुए 1926 को लाहौर में नौजवान भारत सभा नामक शुद्ध क्रांतिकारी संगठन की स्थापना करते हुए, आगे इसको कलकत्ता सहित देश के विभिन्न क्षेत्रों में विस्तार किया। नौजवान भारत सभा का उद्देश्य तथा प्रमुख कार्यक्रम थे - गांधीवादी कांग्रेस की समझौतावादी नीतियों की आलोचना करके देशवासियों को क्रांतिकारी राजनैतिक कार्यक्रमों के लिए प्रेरित करते हुए लोगों में इसके लिए सहानुभूति जागृत करना। सांप्रदायिक एकता को महत्वपूर्ण मानना रूढ़ीवादी तथा अंधविश्वास को दूर करते हुए वैज्ञानिक भौतिकवाद से लोगों को परिचित कराना। भगतसिंह जब भी कानपुर बंगाल या देश के किसी भी हिस्से में जाते उनके थैले में हमेशा नौजवान भारत सभा का साहित्य तथा पर्चे रहते थे। अंग्रेजी दासता के विरुद्ध संघर्ष ही पहला मोर्चा है।अंतिम लड़ाई तो शोषण के विरुद्ध ही लड़नी पड़ेगी। शोषण मनुष्य द्वारा मनुष्य का हो या एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का हो। लड़ाई देश वासियों के सहयोग बिना नहीं लड़ी जा सकती है। अतः हर संभव जनता के निकट पहुंचने का प्रयास सदैव करते रहना चाहिए। शायद ही भगत सिंह से पूर्व किसी क्रांतिकारी ने इस तरह का प्रचार तथा जनसंपर्क का इतना बड़ा एवं संगठित कदम किसी ने उठाया हो। भगत सिंह से पहले क्रांतिकारी जिन्होंने अपने मुकदमों के दौरान ना सिर्फ अपनी पैरवी खुद की वरन् अपने विचारों के प्रचार का माध्यम अदालत का बखूबी से इस्तेमाल करने में सफल हुए। इतनी छोटी उम्र में वह किसी पूर्ण परिपक्व विचारक की तरह प्रगतिशील विचारों को ना सिर्फ कहते थे बल्कि अपने जीवन चरित्र का हिस्सा बना चुके थे।
भगतसिंह का कानपुर से अपने घर पंजाब पहुँचना !
भगतसिंह की माँ को वैद्य दवाइयां खाने दे रहा है, किंतु माँ विद्यावती कौर कहती है -'वैद्य जी यह दवायें कब तक खाऊं, इनसे मेरी तबीयत ठीक होने वाली नहीं है। इन्हें अपने पास रख लो।' किंतु जब अपने पति से सुनती है कि -'यह दवा यदि भगत अपने हाथों खिलाएगा तब तो तुम इन्हें खा लोगी!' भगत सिंह का नाम सुनकर माँ विद्यावती कौर अपने पति से कहती है -' क्या मेरा भगत आ गया है!' और सामने अपने बेटे भगतसिंह को देखती है- 'वैद्य जी अब मुझे किसी भी दवा की जरूरत नहीं है। मेरा बेटा, मेरा भगत मेरे पास आ गया है। वैद्य जी आप बिना किसी चिंता किए जा सकते हैं, मेरी तबीयत की असली दवा तो मेरा बेटा भगत है।' फिर अपने बेटे से पूछती हैं- 'बेटा तुम मुझे छोड़ कर कहाँ चला गया था। कब आया,अपनी माँ से अब तो तू कभी दूर नहीं जाएगा ?' भगतसिंह किसी छोटे बच्चे की तरह अपनी प्यारी माँ के चरण स्पर्श कर चुपचाप माँ की बातें सुनता रहता है। अब सच में माँ की खुशी का ठिकाना नहीं है, बेटा को घर में वापस आया देख स्वास्थ्य तेजी से ठीक होता जा रहा है। माँ और पिता भगतसिंह की शादी कराने की कोशिश में लग जाते हैं, तथा लड़की वालों के घर भगत सिंह की शादी की बात करने बेटा भगतसिंह को साथ लेकर पहुंचते हैं। एक बड़ी- सी हवेली मैं पहुंच कर भगतसिंह अपनी माँ से यहां आने का सबव पूछता है, और थोड़ी देर में ही वह सारा माजरा समझ जाता है। जल्दी से घर वापस आकर अपना संदूक उठा घर से विदा होने लगता है। माँ मनाने और रोकने की कोशिश करती है।
भगतसिंह का अपनी मॉं से शादी को लेकर संवाद!
माता विद्यावती कौर:-" बेटा तुम ऐसे नाराज होकर फिर जा रहे हो, हम से क्या गलती हो गई है!"
(फिर एक लंबी सांस लेकर बोलती है)
-" बेटा ऐसी दुनिया में कौन अभागन माँ होगी, जो अपने जवान बेटे की शादी अपने हाथों नहीं करना चाहेगी,क्या ऐसा गुनाह है? यदि यह गुनाह है तो भी मैं यह करना चाहूँगी!"
भगतसिंह:- " माँ यह ठीक नहीं है, मैं हरगिज शादी नहीं करूंगा!"
माता विद्यावती कौर:- " लेकिन बेटा ऐसा क्यों कह रहा है?"
भगतसिंह:-" माँ जब मैंने अपनी जिंदगी वतन की आजादी के नाम कर दी है, तो फिर क्यों आप लोग मेरी राह रोकने के लिए मुझे शादी की बेढ़ियों में जकड़ना चाहते हैं!"
-" मुझे अच्छे से मालूम है मैं घर गृहस्थी का भार नहीं उठा पाऊंगा!" -"जब एक अच्छे पति होने का फर्ज नहीं निभा सकता तो उस लड़की की जिंदगी क्यों फालतू बर्बाद करुं।"
-" आखिर उस लड़की का क्या कसूर है माँ।"
माता विद्यावती कौर:- "तून ठीक कह रहा है बेटा, शायद यह कसूर हमारा ही है!" -" किस माँ का सपना नहीं होता कि उसका बेटा दूल्हा बने, उसके आँगन शहनाइयाँ बजें,घोड़ियाँ गाई जाएं, गिद्दा और भंगड़ा हो ,ढोल ताशे बजें!"
-" घर बहू आए, लोग इस खुशी में शामिल होने घर आयें।" -" यदि इस अभागन माँ ने यह सपना देखा तो क्या गलत किया!"
भगतसिंह:-"माँ इस समय हम सभी की आँखों में बस एक ही सपना होना चाहिए और वह सपना है देश की आजादी का।" -" जब भारत माँ गुलामी की जंजीरों से मुक्त होगी, वही समय हम सबकी खुशी का सबसे बड़ा दिन होगा।" -"अब वो दिन दूर नहीं है माँ !"
-" जब सारे देश में शहनाईयाँ बजेंगी,लोग ढोल नगाड़े पर भंगड़ा करेंगे,नाचेंगे, गिद्दा गली- गली में होगा!"
-"माँ वायदा करो,आज के बाद आप लोग मेरी शादी की बात नहीं, देश की आजादी की बात करोगे!"
माता विद्यावती कौर:- "ठीक है बेटा! जैसा तून चाहता है, हम वैसा ही करेंगे, लेकिन बेटा मेरा यह कहना मान ले कि तून अभी हमको छोड़कर न जा!"
भगतसिंह:(अपनी माँ के गले लगता है और फिर कहता है) -"ठीक है माँ! मैं अपनी माँ और सबकी माँ भारत माता की तकलीफें कभी बर्दाश्त नहीं करुँगा। इसके लिए मैं अपना सर्वस्य लगा दूँगा। यह मेरा पक्का वचन है!"भगतसिंह अपने कुछ विश्वस्त साथियों को साथ ले स्वयं पहल करते हुए 1926 को लाहौर में नौजवान भारत सभा नामक शुद्ध क्रांतिकारी संगठन की स्थापना करते हुए, आगे इसको कलकत्ता सहित देश के विभिन्न क्षेत्रों में विस्तार किया। नौजवान भारत सभा का उद्देश्य तथा प्रमुख कार्यक्रम थे - गांधीवादी कांग्रेस की समझौतावादी नीतियों की आलोचना करके देशवासियों को क्रांतिकारी राजनैतिक कार्यक्रमों के लिए प्रेरित करते हुए लोगों में इसके लिए सहानुभूति जागृत करना। सांप्रदायिक एकता को महत्वपूर्ण मानना रूढ़ीवादी तथा अंधविश्वास को दूर करते हुए वैज्ञानिक भौतिकवाद से लोगों को परिचित कराना। भगतसिंह जब भी कानपुर बंगाल या देश के किसी भी हिस्से में जाते उनके थैले में हमेशा नौजवान भारत सभा का साहित्य तथा पर्चे रहते थे। अंग्रेजी दासता के विरुद्ध संघर्ष ही पहला मोर्चा है।अंतिम लड़ाई तो शोषण के विरुद्ध ही लड़नी पड़ेगी। शोषण मनुष्य द्वारा मनुष्य का हो या एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का हो। लड़ाई देश वासियों के सहयोग बिना नहीं लड़ी जा सकती है। अतः हर संभव जनता के निकट पहुंचने का प्रयास सदैव करते रहना चाहिए। शायद ही भगत सिंह से पूर्व किसी क्रांतिकारी ने इस तरह का प्रचार तथा जनसंपर्क का इतना बड़ा एवं संगठित कदम किसी ने उठाया हो। भगत सिंह से पहले क्रांतिकारी जिन्होंने अपने मुकदमों के दौरान ना सिर्फ अपनी पैरवी खुद की वरन् अपने विचारों के प्रचार का माध्यम अदालत का बखूबी से इस्तेमाल करने में सफल हुए। इतनी छोटी उम्र में वह किसी पूर्ण परिपक्व विचारक की तरह प्रगतिशील विचारों को ना सिर्फ कहते थे बल्कि अपने जीवन चरित्र का हिस्सा बना चुके थे।
भगतसिंह की शिव वर्मा को दूरदर्शिता समझाइश!
काकोरी केस में कैद राम प्रसाद बिस्मिल सहित अन्य साथियों को छुड़ाने एक्शन प्लान बनाया, जिसमें अपने शरीर से कमजोर शिव वर्मा को भगतसिंह ने शामिल नहीं किया। इससे शिव वर्मा नाराज होकर नींद का बहाना करके चुपचाप लेट गया। भगत सिंह यह बहुत अच्छी तरह समझ गए कि शिव सोने का नाटक भर कर रहा है।
भगतसिंह:( शिव वर्मा का कंधा हिलाते और धीरे से पुकारते हुए कहा)- "शिव !"
शिव वर्मा:( करवट बदलते हुए बोला)-" क्या है?"
भगतसिंह:- "एक बात पूछूं?"
शिववर्मा:- "कहो!"
भगतसिंह:-" व्यक्ति का नाम बड़ा है या पार्टी का काम?"
शिववर्मा:-"पार्टी का काम।"
भगतसिंह:-" हमारे 'एक्शन' सफल होते रहे,और पार्टी का काम अभिराम गति से चलता रहे। हमारी बात नियमित रूप से देशवासियों तक पहुंचती रहे, अपनी इस आजादी की लड़ाई में हर मंजिल पर हम कामयाब होते रहें, इसके लिए सबसे पहली और बड़ी शर्त क्या है ?"
शिववर्मा:-" एक मजबूत और व्यापक संगठन ।"
भगतसिंह:-"संगठन और प्रचार!"
-" देश की जनता हमारे साथ और हमारे कामों की सराहना भी करती है, लेकिन कोई हमसे अपना सीधा संबंध जोड़ पाने में असमर्थ है।"
-" अभी तक हमने उसे खुले शब्दों में यह नहीं बताया कि जिस आजादी की हम बात करते हैं उसकी रूपरेखा क्या होगी ।"
-"अंग्रेज चले जाने के बाद जो सरकार बनेगी वह कैसी और किसकी होगी!"
- " इस बीच अपने आंदोलन को जनाधार देने अपना ध्येय जनता के बीच ले जाना होगा।"
-" जनता का समर्थन प्राप्त करें बिना हमारा कामअधूराहै।" -" ऐसे पुराने ढ़ंग से इक्के दुक्के अंग्रेज अधिकारियों और उनके मुखबिरों को मारकर काम नहीं चल सकता।"
-" संगठन प्रचार की ओर उदासीन रहकर हम प्राय: एक्शन पर ही जोर देते आए हैं।"
-" काम का यह तरीका और नहीं होगा।"
-" तुम्हें और विजय को संगठन तथा प्रचार के लिए सुरक्षित रखना चाहता हूं।"
( फिर कुछ देर चुप रहने के बाद भगत सिंह अपनी बात से शिव वर्मा को समझाते हुए )
भगतसिंह:- "हम सब लोग सिपाही हैं और रण क्षेत्र से सिपाही का सबसे अधिक मोह होता है।'एक्शन'का सुन सभी उछल पड़ते हैं।"
-" आंदोलन का ध्यान में रखते हुए किसी ना किसी को तो एक्शन का मोह त्यागना ही होगा।"
-" यह भी सही है कि अक्सर शहादत का सेहरा 'एक्शन' में झूलने वालों या फांसी पर झूलने वालों में के सिर पर ही बंधता है। लेकिन यह भी सत्य है कि एक्शन इमारत के मुख्य द्वार पर जड़े हीरे के समान होती है।"
-"इस इमारत को खड़ी करने वाली नींव के नीचे लगे एक साधारण पत्थर के मुकाबले फिर यह कुछ भी नहीं हो सकती।"
-" हीरे इमारत की सुंदरता बढ़ा सकते हैं, लेकिन वे इमारत की बुनियाद नहीं बन सकते। जो इमारत को लंबी उम्र दे सकें।"
-" अभी तक हमारे आंदोलन ने हीरे ही कमाए हैं। बुनियाद के लिए पत्थर नहीं बटोरे हैं।"
-" तमाम कुर्बानियों को देने के बाद भी इमारत तो क्या अभी उसका ठीक से ढ़ाचा तक खड़ा नहीं कर पायें।"
-" शिव हमें हीरों से अधिक बुनियाद के पत्थरों की जरूरत है!"
( थोड़ा रुक कर पानी का घूंट भरते हुए फिर भगतसिंह बोलना शुरू करते हैं )
-"तुम्हें यह मालूम होना चाहिए कि त्याग और कुर्बानी कि भी दो रूप होते हैं। एक है गोली खाकर या फांसी पर लटक कर मरना। निश्चित है इसमें चमक अधिक है, और तकलीफ कम ।"
-" दूसरा रूप है पीछे रहकर सारी जिंदगी इमारत का बोझ अपने सिर एवं कांधौ पर ढोते फिरना।"
-" आंदोलन के उतार-चढ़ाव के बीच विपरीत परिस्थिती में विचलित हुए बिना अपनी राहें नहीं छोड़ते, और इमारत के बोझ से जिनके पैर नहीं लड़खड़ाते,कंधे नहीं झुकते।"
-" जो सिर्फ अपने आप को तिल-तिल करते हुए जलाते गलाते रहते हैं कि दिये की जोत कम होकर बुझ न जाये, और सुनसान डगर में अंधेरा ना छा जाये।"
-"शिव तुम्ही बताओ क्या ऐसे लोगों की कुर्बानी और त्याग पहले वालों के मुकाबले क्या अधिक नहीं है।"
भगतसिंह का अद्म साहस
काकोरी कांड के बाद अंग्रेजों ने जो क्रांतिकारी बिस्मिल अशफाक लहरी और हैदर को पकड़कर हवालात में बंदी बना रखा था उनको छुड़ाने चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह पुलिस थाने पर रात में हमला करते हैं और भारी गोलीबारी होती है। जिसमें 1 गोली पीछे आकर हैदर को लग जाती है, किंतु भगत सिंह उसे थाने से उठाकर अपने कंधे पर लाने में सफल हो जाता है। इसके अंतिम क्रिया के लिए चंद्रशेखर आजाद तथा भगत सिंह चिंतित हो अभी चर्चा कह रहे थे कि अंदर आकर गणेश शंकर विद्यार्थीजी लाला लाजपत राय जी का संदेश बताते हुए कहते हैं। आप सभी साथियों को लालाजी ने तुरंत लाहौर बुलाया है। विद्यार्थी जी से संदेश सुनते ही चंद्रशेखर आजाद भगत सिंह को कहते हैं। भगत तुम लाला जी के पास लाहौर जाओ मैं हैदर के परिवार वालों से मिलकर इसके दफन - कफन की व्यवस्था करता हूँ! भगत सिंह फौरन लाला लाजपत राय जी से मिलने लाहौर रवाना हो जाता है। तथा वहाँ पहुँचकर लाला जी भगतसिंह को सामने देख नाराज होते हुए गुस्से से कहते हैं।
लाला लाजपत राय जी:- " भगतसिंह तुम और आजाद तथा तुम्हारे साथी क्या करने जा रहे हैं! हाथों में पिस्तौलें लें ,बंदूक व बम लें, पुलिस वालों पर गोली दाग कर, इधर-उधर लूटपाट डांके डालकर आखिर क्या करना चाहते हो। इन सब कामों से देश को कभी स्वाधीनता नहीं मिलने की।"
-" तुम सारे के सारे नौजवान क्रांतिकारी गैर जिम्मेदार लोग हो,आखिर तुम किस की नकल करने में लगे यह काम कर रहे हो।"
भगतसिंह:- " हम नकल उनकी कर रहे हैं, जो कामयाब हो चुके हैं!" -" हम क्या करें लाला जी, राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस का इंतजार!" -" क्या होगा, और अभी तक क्या हुआ है!" -" लालाजी ! हम सब असहयोग आंदोलन के साथ थे, हमें वो तरीका ठीक लगा था। पूरे देश को भी ठीक लगा था।" -" नौजवानों ने इसके लिए अपनी पढ़ाई छोड़ दी, वकीलों ने अपनी वकालत बंद कर दी,डॉक्टरों ने अपनी डॉक्टरी, देश के हर इंसान अपने काम धंधे, नौकरियां छोड़ कर इस आंदोलन में शामिल हो गए!" -" हम सबको लग रहा था कि अब हमें आजादी मिलने वाली है। लेकिन क्या हुआ!" -" चोराचोरी की घटना के बाद कुछ लोगों के कारण गांधीजी पीछे हट गए और असहयोग आंदोलन बंद कर सारे देश का जोश ठंडा कर दिया।"
-" आजादी कोई शतरंज नहीं जिसे बंद कमरे में बैठकर बाजी जीती जा सके!"
-" हमें यह कायरता नहीं आती है, कोई गाल पर एक चांटा मारे तो दूसरा गाल आगे कर दो।"
-" यदि फिरंगी हमारे एक आदमी को मारने की कोशिश करेंगे तो, मैं एक- एक करके उन सभी को मार डालूंगा।" -" मुझे चाहिए संपूर्ण आजादी, उससे एक रत्ती भर भी कम नहीं, अपनी आजादी हम इन गोरे फिरंगियों से मांगेंगे नहीं, हम अपने दम से इसे छीनेंगे।"
-" हम इसके साथ यह भी मानते हैं पिस्तौल और बम कभी इंकलाब नहीं लाते, इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है।"
(लालाजी भगतसिंह की बातों से खुश होकर अपनी एक बात मानने का वचन लेने बोलते हैं)
लाला लाजपत राय जी:- " भगत सिंह,यदि मैं तुमसे अपनी एक बात मानने का बोलूं तो क्या तुम मेरी बात मानोगे ?"
भगतसिंह:- " लालाजी, मैंने हमेशा ही आपको पिता तुल्य माना और सम्मान दिया है, फिर आप ऐसा क्यों पूछते हैं। आप तो मुझे यह आज्ञा दें कि मुझे करना क्या है!"
लाला लाजपत राय जी :-" भाइयों आप सब यह जानते हैं कि साइमन कमीशन भारत आ चुका है। यह कमीशन हम सब भारतीयों के साथ एक और छल से अधिक कुछ नहीं है।"
-" वाह भाई वाह चंद अंग्रेज मिलकर यह तय करेंगे कि हमें कितनी और कैसी आजादी दी जाए।"
-" यह तय करने वाले वो कौन होते हैं कि हमें क्यों और कितनी आजादी दी जाए!"
भगतसिंह:- " सही यह तय करने वाले वो कौन होते हैं। यह देश हमारा है, इसके खेत - खलियान, नदी,जंगल, पहाड़ सब हमारे हैं। और यह फिरंगी अंग्रेज तय करने की बात करते हैं। हमें क्यों और कितनी आजादी वो देंगे!"
लाला लाजपत राय जी:- "इस कमीशन की बम्बई,कलकत्ता सब दूर देश में विरोध हो रहा है। कल लाहौर में आ रहा है। हमें इसका पुरजोर शांतिपूर्ण ढंग से घेराव करते हुए विरोध करना है।" -" साइमन कमीशन वापस जाओ!"
-" जब यह कमीशन लाहौर रेलवे स्टेशन पर उतरेगा उस समय हमारे साथ तमाम पार्टियाँ एक साथ हो इसको वापस जाने आंदोलन करेंगी।"
-" मैं चाहता हूँ कि तुम भी हमारे साथ रहो और इसका विरोध करो, लेकिन मेरी एक शर्त है कि तुम लोग किसी तरह का दंगा या हिंसा नहीं करोगे।"
-" हमारा यह आंदोलन पूरी तरह अहिंसात्मक है।"
भगतसिंह:-" लालाजी, मैं यह आपसे वादा करता हूँ कि हम आंदोलन में पूरी तरह शांतिपूर्ण आपके साथ रहेंगे।"
-" हम केवल साइमन कमीशन के विरोध में नारे लगाएंगे आप निश्चिंत रहें।"
लाला लाजपत राय जी:- "शब्बाश भगत सिंह, मुझे तुमसे यही उम्मीद थी।"
भगतसिंह:-"जी लाला जी! हम केवल घेराव करते हुए नौजवान भारत सभा के बैनर और हाथ में तख्तियां लिए सिर्फ शांतिपूर्ण शामिल होकर नारे लगाएंगे बस!"
जब भगत सिंह जगह जगह घूम कर देश के छात्रों और नौजवानों को अंग्रेजी साम्राज्यवादी सरकार के खिलाफ शिक्षित एवं क्रांति के लिए प्रेरित कर रहे थे। तब 1928 मैं ही इस फिरंगी सरकार ने इस बात का पता लगाने के लिए कि भारत की आवाम सुधारों के लिए तथा संसदीय लोकतंत्र के दायरे में आने के लिए तैयार है या नहीं, इस परिपेक्ष में अंग्रेजी हुकूमत ने इंग्लैंड से साइमन कमीशन भारत में भेजा था। जिसका विरोध सारे देश में उठ खड़ा हुआ था। देश में हर जगह इस साइमन कमीशन के खिलाफ जोरों से आंदोलन हो रहे थे। वहीं गांधी जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय कांग्रेस भी साइमन कमीशन का सिर्फ इसलिए बहिष्कार कर रही थी कि इस कमीशन में एक भी भारतीय प्रतिनिधि नहीं था। किंतु भगत सिंह और उनकी 'नौजवान भारत सभा' स्पष्ट रूप से यह कहकर विरोध कर रही थी कि "अंग्रेज सरकार को भारत का भाग निर्धारण करने का कोई अधिकार नहीं है। अत: इस कमीशन का बहिष्कार करना है।" इस प्रकार गांधी वादियों और भगत सिंह के बीच का दृष्टिकोण और भिन्ननता का दर्शन साफ देखा एवं समझा जा सकता है।
30 अक्टूबर 1928 को लाहौर में जब साइमन कमीशन पहुँचता है, वहां भगत सिंह द्वारा स्थापित 'नौजवान भारत सभा' लाला लाजपत राय जी के नेतृत्व में भारी प्रदर्शन एवं घेराव करती हुई आंदोलन के साथ विरोध प्रदर्शन साइमन कमीशन के खिलाफ में गगनभेदी नारों से करती है। जिसे देखकर अंग्रेजी हुकूमत घबराकर सख्ते में आ जाती है तथा निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर अंधाधुध लाठी चार्ज पुलिस कर देती है। जिसमें पंजाब केसरी वयोवृद्ध लाला लाजपत राय जी गंभीर रूप से इतना भारी विरोध प्रदर्शन का सामना देखकर अंग्रेजी हुकूमत घबरा जाती है, तथा इन निहत्थों पर ताबड़तोड़ पुलिस को लाठीचार्ज करने का हुक्म देती है। और बहुत ही बेदर्दी से आंदोलनकारियों को पीटना जारी करती है। लेकिन सभी प्रदर्शनकारी बिना विचलित हुए अपना विरोध प्रदर्शन जारी रखते हैं। पुलिस के इस लाठीचार्ज में लाला जी के सिर में गंभीर चोटें आती हैं। जिन्हें भगत सिंह एवं साथी हॉस्पिटल लेकर जाते हैं। लाला जी इस घायल अवस्था में भी बोलते हैं)
लाला लाजपत राय जी:-" मैं ऐलान करता हूँ कि जो चोटें मुझ पर की गई है,भारत में अंग्रेजी शासन के ताबूत में आखिरी कीलें साबित होंगी!"
-" I declare that the blows struck at me will be the last nails in the coffin of the British rule in India."
लाला जी की मौत का बदला !
अंग्रेज पुलिस के द्वारा लाठीचार्ज में पंजाब केसरी लाला लाजपत राय जी का देहांत 17 नवंबर 1928 को हो गया। उनकी शव यात्रा में हजारों लाहौर वासियों ने भाग लिया। लाला जी के इस बर्बर हत्याकांड से भगतसिंह और उनके साथियों ने इसका बदला लेने का प्रण किया तथा मौत से कम कुछ भी उपयुक्त सजा नहीं का फैसला किया गया। फिर 17 दिसंबर 1928 को लाहौर में पुलिस मुख्यालय के सामने ही स्कॉट को मारने भगत सिंह और साथी मोर्चा संभालते हैं। किंतु जैसे ही स्कॉर्ट की जगह सांडर्स निकल कर आता है,साथी उसे ही स्कॉर्ट समझकर गोली दाग देता है। फिर रही कसर को अंजाम तक भगत सिंह के पिस्तौल की गोलियां कर देती है। इस तरह राजगुरु और अन्य साथियों ने मिलकर लाला जी की हत्या का बदला सांडर्स को मौत के घाट उतार के ले लिया जाता है।
इस तरह साण्डर्स कांड के बाद अंग्रेज पुलिस बौखलाकर किसी भी तरह इन लोगों को पकड़ने की भरसक कोशिश करती है, और शहर के हर घर की तलाशी लेती है। किंतु वह इन क्रांतिकारियों तक पहुंचने में नाकाम हो जाती है। महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद की सूझबूझ तथा अपना हुलिया बदलकर भगत सिंह अंग्रेजी पुलिस की आंखों में धूल झोंक ट्रेन में सवार होकर सीधे दुर्गा भाभी और उनके बच्चे को साथ ले कलकत्ता (कोलकाता) पहुंच जाते हैं। जहाँ उन्हें अपने साथी भी लाड साहब की वेशभूषा में देख कुछ समय के लिए चौंककर (स्तब्ध) देखते रह जाते हैं। कलकत्ता में प्रवास के दौरान भगत सिंह तमाम नए पुराने क्रांतिकारी साथियों के साथ मिलकर देश की आजादी के लिए आगे की रूपरेखा पर चर्चा करते हुए बम बनाने का प्रशिक्षण भी प्राप्त करते हैं। तथा पुस्तकों का अध्ययन और लेनिन, मार्क्स,, टॉलस्टॉय, गोर्की, बर्नार्ड शॉ, चाल्र्स डिकेंस, विक्टर ह्यूगो आदि का भी अध्ययन करते रहते हैं। चंद्रशेखर आजाद का संदेश पाकर भगत सिंह आगरा पहुंच जाते हैं। इतना कुछ निरंतर अध्ययन ने उन्हें मार्क्स के भौतिकवाद और बोल्शेविक क्रांति की तरफ अपने आप को जोड़कर वो देखने लगे। तथा देश में आजादी के लिए सक्रिय तमाम ग्रुपों को एकजुट कर एक नई पार्टी के गठन करने के लिए पहल की। जिस में उपस्थित होकर अनेकों क्रांतिकारी साथियों ने अपनी सहमति प्रदान की। इस तरह 1928 के उत्तरार्ध में भगतसिंह के सुझाव को मान कर पार्टी का पुनर्गठन किया गया।
भगतसिंह का साथियों को सम्बोधन !
-" कॉमरेड्स, अब समय आ गया है कि हम सब अलग - अलग ग्रुपों में छिटपुट एक्शन वाले कार्यक्रमों की अपेक्षा सब एक साथ एक दल में मिलकर संगठित रूप से जन आंदोलन पर जोर दें। जहाँ पर व्यक्ति विशेष नहीं, सामूहिक नेतृत्व सुझाव एवं आदेश सर्वोपरि रहेगा। तथा हमारे आंदोलन का प्रमुख केंद्र जन आंदोलन व समाजवाद होगा!"
-" क्या यहाँ उपस्थित कॉमरेड्स आप सभी को मेरी तरफ से दिया यह सुझाव पसंद है!"
सभी साथी:(एक स्वर में बोलते हैं) -" ठीक है, हमें आपके सुझाव मंजूर हैं!"
भगतसिंह:-"आज से हमारे दल का नया नाम 'हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन' की जगह 'हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन' होगा!"
-"क्या आप सभी कॉमरेड्स को मंजूर है ?"
सभीसाथी:(एकसाथ)-"हिंदुस्तानसोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन जिंदाबाद!"
भगतसिंह:-" एच.एस.आर.ए.जिंदाबाद!"
सभीसाथी:-"एच.एस.आर.ए.जिंदाबाद-जिंदाबाद!"
भगतसिंह:-" इंकलाब जिंदाबाद!"
सभी साथी :- "जिंदाबाद-जिंदाबाद!"
भगतसिंह:-"साम्राज्यवाद का नाश हो!"
सभीसाथी:- "नाश हो...नाश हो!"
भगतसिंह :(सभी के हाथ अपने हाथों में लेते हुए)-"हम सब एक हैं!"
सभीसाथी :(हाथों में हाथ लिए)-" कॉमरेड्स सब एक हैं, एक हैं!"
भगतसिंह:- "कॉमरेड्स यह बताना मैं यहां आवश्यक समझता हूँ कि हमारी पार्टी का लक्ष्य समाजवाद है। इसलिए हमें इसके अनुरूप पार्टी का नाम बदलने की जरूरत महसूस हुई। ताकि देश के लोगों को यह पता चले कि हमारा प्रमुख लक्ष्य क्या है। हमें सिर्फ उन्हीं एक्शनों में अपना हाथ डालना है। जिनके साथ जनता की प्रत्यक्ष रूप से मांग तथा जज्बात जुड़े हुए हों। इसके अलावा सामान्य पुलिस अधिकारियों तथा पुलिस के मुखबिरों की हत्या के जरिए समय की बर्बादी नहीं करनी चाहिए। कोष संग्रह के मामले में भी केवल सरकारी खजाने पर ही हाथ डालना चाहिए। निजी प्रतिष्ठानों या व्यक्तिगत संपत्ति पर एक्शन से यथासंभव परेहज ही करना चाहिए, व्यक्ति नेतृत्व की अपेक्षा सामूहिक नेतृत्व से ही पार्टी का संचालन जरूरी है।"
सभीसाथी:-"एच.एस.आर.ए.जिंदाबाद- जिंदाबाद!"
भगतसिंह:-"इंकलाब जिंदाबाद!"
सभीसाथी:- "जिंदाबाद-जिंदाबाद !"
-" इंकलाब जिंदाबाद!!""
भगतसिंह का आर्थिक तंगी से सामना!
भगतसिंह अपनी दादी के देहांत होने के कुछ दिन बाद ही घर से लाहौर तथा यहाँ से पुन: कानपुर आ गए। जहाँ पर भगतसिंह अत्यंत आर्थिक तंगी में रहते हुए अखबार तक बेचने का कार्य किया, इसके बाद वह गणेश शंकर विद्यार्थी जी के 'प्रताप' मैं भी पत्रकारिता करते हुए तथा 'कीरती' नामक पत्रिका के लिए भी बलवंत सिंह(छदम् ) नाम से देश की ज्वलंत समस्याओं पर आलेख के माध्यम अपनी बात पहुँचाते रहे। ताकि देश के लोग हकीकत से रू-ब-रू हो सकें। और आपसी भाईचारा साम्प्रदायिकता के कुचक्र से बच सकें।
भगत सिंह की प्रतिभा और समर्पण को देखते हुए पार्टी ने उनको छात्रों के लिए क्रांतिकारी विचारों से प्रेरित करने तथा पार्टी फंड (कोष ) संग्रह के उद्देश्य से नेशनल स्कूल ग्राम शादीपुर जिला अलीगढ़ में हेड मास्टर के पद पर नियुक्त करवा दिया था। जहाँ भगत सिंह ने इस दौरान पंजाब एवं उत्तर प्रदेश के विभिन्न गांव - शहरों में अत्यंत कुशलता पूर्वक तमाम इस्तिहारों से क्रांतिकारी विचारों का प्रचार किया। फंड जुटाया तथा छात्र -युवाओं को पार्टी कार्यकर्ता के रुप में भर्ती किया। भगत सिंह इसके साथ - साथ विभिन्न देशों के क्रांतिकारी, समाजवादी, क्रांति तथा साम्यवाद का ज्ञान अर्जित करते हुए वह मार्क्स - लेनिन से संबंधित पुस्तकों का अध्ययन करते रहे। सच तो यह है कि यह समय भगत सिंह के राजनैतिक विचारों का परिवर्तन के साथ-साथ ईश्वर विश्वास से मुक्त होकर वैज्ञानिक तथा भौतिकवादी विचारों की तरफ प्रवृत हो उन्हें अपनाने एवं छुटपुट चल रहे क्रांतिकारी एक्शनों की अपेक्षा जन संगठन के निर्माण, जन जागृति तथा जन क्रांति की आवश्यकता पर सुदृढ़ रूप से कार्य करना प्रमुख है।
अप्रैल सन 1928 में टाटा स्टील कारखाना जमशेदपुर में लगभग 5 महीने तक लगातार वहाँ के मजदूरों ने हड़ताल की। जिसके फलस्वरूप देश के अन्य स्थानों पर भी एवं मजदूर आंदोलन फैल गया। इससे पूर्व सन् 1917 में रूस के मजदूर वर्ग की नवंबर क्रांति ने सफलता के साथ सत्ता पर अपना कब्जा कर लिया था। अतः भारत के मजदूर आंदोलनों से डरकर फिरंगियों की साम्राज्यवादी सरकार और भारतीय पूंजीपति इसको शुरू होने के साथ ही खत्म करना चाहते थे। इसके लिए केंद्रीय असेंबली में 'ट्रेड डिस्प्यूट बिल' तथा 'पब्लिक सेफ्टी बिल' लाई थी और इन दोनों ही बिल को पारित कराने के सब प्रबंध कर लिए गए थे। किंतु देशभर में इनका भारी विरोध हो रहा था। इतना ही नहीं असेंबली के अधिकतर भारतीय सदस्यों ने इस बिल पर ऐतराज जताया था। लेकिन अंग्रेज हुकूमत टस से मस नहीं हुई। भगत सिंह एवं उनके साथियों ने इन मजदूर आंदोलन में मजदूरों की छुपी शक्ति की संभावनाओं को देखा। और यह निर्णय किया कि मजदूरों के आंदोलन और उनके हक को अपना समर्थन देते हुए किसी भी तरीके से असेंबली में पास नहीं होने देंगे।
काले कानून हरगिज पास नहीं होने देंगे!
आगरा की हींग मंडी में एचएसआरए के नए दफ्तर में चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, भगवती चरण बोहरा अपने तमाम साथियों के साथ बैठे हुए हैं, और तमाम बातों पर विचार मंथन चल रहा है। तब ही यहाँ सब के एकत्रित होने के प्रमुख कारण पर विचार करते हुए भगवती चरण बोहरा अपनी बात करने खड़े होते हैं) - हो जाते हैं।
भगवती चरण बोहरा:- "अंग्रेज सरकार बहुत ही चालाकी के साथ दो काले कानून पास करने जा रही है।"
भगतसिंह:-"क्या? "
भगवती चरण बोहरा:- "हां साथियों पहला 'पब्लिक सेफ्टी बिल' जिसके तहत् देश में कभी भी किसी को भी बिना कारण के भी उठा कर जेल में डाल कर अमानवीय यातनाएं दी जाएंगी। दूसरा 'ट्रेड डिस्प्यूट बिल' जिसमें यह फिरंगी हुकूमत तमाम पूँजीपतियों को खुश करने, मजदूरों को अपनी किसी भी मांग के लिए हड़ताल और आंदोलनों को करने से पूरी तरह रोक लगाना है।
भगतसिंह:-" हम किसी भी कीमत पर असेंबली में यह काला कानून (बिल) पास नहीं होने देंगे!"
(सब साथी उत्सुकता और प्रश्न भरी नज़र से देखते हुए सवाल करते हैं)
सबसाथी:-" अच्छा! लेकिन वो कैसे?"
भगतसिंह:-" हम असेंबली में बम फैकेंगे!"
चंद्रशेखर आजाद:- "अच्छा विचार है, एक ही साथ यहाँ कितने ही सुसरे, गौरे फिरंगी मारे जाएंगे!"
भगतसिंह:-" नहीं आजाद जी, इस बम से कोई नहीं मरेगा ना जख्मी ही किया जाएगा!"
चन्द्रशेखर आजाद :-" तो इससे क्या फायदा होगा, जब कोई मरेगा ,न ही जख्मी ही होगा?"
भगतसिंह:-" बेहरों के बंद कानों को खोलेने तथा अपनी बात कहने तेज आवाज की जरूरत होती है। अतः हम वहाँ तेज आवाज करने वाले बम फैकेंगे, जिससे ना कोई मरेगा ना ही जख्मी होगा।"
-"हम असेंबली में खाली जगह पर तेज आवाज करने वाले बम के साथ पर्चे असेंबली में फेंकते हुए नारे लगाएंगे।"
-" इंकलाब जिंदाबाद ,साम्राज्यवाद का नाश हो!"
-" और हम वहाँ से भागेंगे भी नहीं,अपनी गिरफ्तारी देंगे!"
-" अपनी बात को अदालत के जरिए दुनिया तक अपनी यह बात पहुँचाएंगे कि अब हिंदुस्तान जाग रहा है!"
-" इससे अब किसी भी तरह से अधिक दिनों तक गुलाम बनाकर नहीं रखा जा सकता।"
-" अब हमें चाहिए सिर्फ आजादी, वह भी पूरी आजादी इससे कम रत्ती भर भी नहीं!"
चन्द्रशेखर आजाद :- "ठीक ऐसा ही होगा!"
भगतसिंह:- "असेंबली में बम मैं फेंकूँगा!"
चन्द्र शेखर आजाद:- "नहीं, भगतसिंह तुम यह काम नहीं करोगे, मैं नहीं चाहता तुम यह बम फैंको,यह काम मैं करुँगा!"
भगतसिंह:-"आजाद जी, आपको याद है हमारी पहली मुलाकात के समय क्या कहा था!"
चन्द्रशेखर आजाद:- " क्या कहा था?"
भगतसिंह:- " हम आजादी की ऐसी जंग लड़ रहे हैं, जिसको पूरी होती देख शायद हम में से कोई जिंदा नहीं रहे !"
चन्द्रशेखर आजाद:-"हाँ कहा था , तो?"
भगतसिंह:- " तो फिर आजाद जी,मेरी मौत से आप क्यों डरते हैं !
-"जब मुझे अपनी मौत से डर नहीं लग रहा है!"
भगतसिंह;- " जब एक करतार सिंह सराभा की मौत मुझ सा भगत सिंह पैदा कर सकती है, तो इस देश के लिए कुर्बानी देने वाले तमाम नौजवानों में सैकड़ों भगत सिंह आपके साथ खड़ेकरसकतीहै!"
भगत सिंह के तर्कों से आजाद सहित सब साथी निरुत्तर चुपचाप स्तब्ध खडे़ रह गये तथा भगत सिंह के निर्णय का कोई विरोध नहीं कर पाया, तभी साथी बटुकेश्वर दत्त भी अपना निर्णय सुनाते हुए कहता है )
बटुकेश्वर दत्त:- "मैं असेंबली में बम और पर्चे फैंकने भगतसिंह के साथ जाऊँगा!"
दिल्ली में जो संसद भवन है वह उस समय अंग्रेजों का बनाया हुआ केंद्रीय असेंबली भवन था। जिसमें 8 अप्रैल, 1929 को अंग्रेजी सरकार 'पब्लिक सेफ्टी बिल' तथा 'ट्रेड डिस्प्यूट बिल' के नाम से दो काले कानूनों को पास कराने केंद्रीय असेंबली में रखती है। जिनके द्वारा अपनी मांगों को मानने से रोकना और मजदूरों का शोषण करते हुए साम्राजवादी सरकार तथा उसमें पनप रहे देशी पूंजीपति मिलकर लाभ ही नहीं कमायें बल्कि इन श्रमिकों की आवाज को दबाया कुचला जा सके। किंतु भगत सिंह अपने साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ चुपचाप असेंबली हॉल में पहुंचकर बैठे सब देख रहे थे। जैसे ही बिल के संबंध में बात शुरु हुई वैसे ही इसके विरोध में इन जांबाज क्रांतिकारियों ने फ्रांस के महान क्रांतिकारी 'वेलिया' की तरह मजदूरों और देश के लोगों को जागरूक करने तथा बेहरी अंग्रेजी हुकूमत के कान खोलने के लिए तेज आवाज करने वाले बम असेंबली हाल की खाली सुरक्षित जगह में फेंकने खड़े हो जाते हैं।
असेंबली सभापति: ( बिल की प्रक्रिया शुरू करने सभी प्रतिनिधियों को संबोधित करना आरम्भ करता है)
-" ऑल रिमेंबर मेंबर्स पब्लिक बिल एंड ट्रेड डिस्प्यूटबिल....!" (अभी असेंबली में बात शुरू ही हो रही थी कि भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त अपनी जगह से उठकर असेंबली हॉल की खाली जगह में निशाना साध कर दो बम फेंकते हैं।)
भगतसिंह : (दो बम लगातार फेंकने के बाद में पर्चे भी फेंकते हुए नारे लगाते हैं ) -"इंकलाब जिंदाबाद!"
बटुकेश्वर दत्त: (पर्चा फेंकने के साथ ही) - " इंकलाब जिंदाबाद !"
भगतसिंह:- "इंकलाब जिंदाबाद, इंकलाब जिंदाबाद !"
-" अंग्रेजसायी मुर्दाबाद!"
-"ब्रिटिश इम्पेरिलिज्म डॉउन फॉल"
-"डॉउन फॉल- डॉउन फॉल !"
- " दुनिया के मजदूरों एक हो,एक हो!"
-" एच.एस.आर.ए.जिंदाबाद-जिंदाबाद!"
( भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त के इस अप्रत्याशित एवं क्रांतिकारी बम के एक्शन की आवाज सुनकर असेंबली हॉल में भगदड़ मच जाती है। और देखते ही देखते असेंबली लगभग खाली हो जाती है। लेकिन दोनों ही क्रांतिकारी अपनी जगह पर्चे फेंकते और नारे लगाते हुए बेखौफ खड़े रहते हैं और अपनी गिरफ्तारी देते हैं।)
सार्जेंट टेरी:( कुछ पुलिस वालों के साथ डरता हुआ दोनों क्रांतिकारियों के पास आते हुए पूछता है)
- "क्या टुमने यह काम कीया हैय..
- "Have you done it ?"
भगतसिंह:(दृढ़तापूर्वक) -"Don't worry,we shall tell the whole world that we have done it !"
-"चिंता नहीं करो, हम पूरी दुनिया को बताएंगे कि यह काम हमने ही किया है!"
सार्जेंट टेरी:(पुलिस वालों से)-"पकड़ो इन्हें, और ले चलो!"
भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त:(दोनों आगे आकर अपने हाथ आगे करते हुए बोलते हैं)
-"लो करो हमें गिरफ्तार और ले चलो जहाँ भी ले जाना हो !" (जब दोनों को पुलिस गिरफ्तार करके ले जा रही होती है, तब लोगों के बीच से गगनभेदी नारों की आवाज आती है)
-"वंदे मातरम्, वंदे मातरम्!"
-" भारत माता की जय ,भारत माता की जय !"
-"इंकलाब जिंदाबाद, इंकलाब जिंदाबाद!"
भगतसिंह तथा बटुकेश्वर दत्त ने असेंबली में जो पर्चे फेंके उनमें हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक आर्मी का ऐलान छपा हुआ था- 'बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊंची आवाज की जरूरत होती है।' फ्रांसीसी प्रसिद्ध विद्रोही 'वेलियाँ' के अमर शब्द हमारे काम के औचित्य के साक्षी हैं।
भारतीय जनता अपने सशक्त विरोध द्वारा अन्याय पर टिकी हुई हत्यारी ब्रिटिश सरकार को यह बता दे कि 'पब्लिक सेफ्टी बिल'और 'ट्रेड डिस्प्यूट बिल' एवं लाला लाजपत राय की नृशंस हत्या, हमें हमारे मार्ग से एवं स्वाधिनता के पवित्र संकल्प से डिगा नहीं सकती। संसार के इतिहास ने अनेकों बार इस ज्वलंत सच्चाई की घोषणा की गई है कि व्यक्ति की हत्या करना तो सरल है, किंतु विचारों की हत्या नहीं की जा सकती।
बड़े से बड़े कितने ही साम्राज्य नष्ट हो गए लेकिन आज भी विचार जीवित हैं। फ्रांस के 'ब्रुवां' और रूस के 'जार' सब चले गए, जबकि क्रांतिकारी विजय की सफलता के साथ आगे बढ़ते गए। क्रांति की देवी का अभिषेक करने के लिए, जो सबको ही स्वतंत्रता प्रदान करेगी कुछ व्यक्तियों का बलिदान होना अत्यंत आवश्यक है। तब ही मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण असंभव हो सकेगा।
भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त के पास गोलियों से भरे रिवाल्वर थे,इसके बावजूद उन्होंने किसी को गोली नहीं मारी, बम से भी कोई घायल नहीं हुआ। इन बमों में जो सामग्री थी उस से कोई घायल नहीं होता सिर्फ जोर की आवाज होती है। वह चाहते तो बहुत ही आसानी से वहाँ से निकल सकते थे। किंतु इन भारत माता के सूरवीरों ने अपना काम बखूबी अंजाम दे, बहुत दिलेरी से खड़े रहकर गिरफ्तारियाँ दी।
असेंबली बम कांड के साथ भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त के साथ एच. एस. आर. ए. सारी दुनिया में चर्चित हो गए। शायद ही दुनिया का कोई अखबार ऐसा होगा जिसमें भगतसिंह तथा बटुकेश्वर दत्त और उनकी पार्टी को अपने समाचार को प्रमुख रूप से( हेड लाइन) न बनाया गया हो।
इस प्रकार जो काम तथा अपनी विचारधारा के प्रचार - प्रसार की रूपरेखा भगतसिंह ने अपने दिमाग में सृजित कर रखी थी, वो अब सारी दुनिया के सामने एक ही झटके में आ गई। जो लोग भगतसिंह के नाम से वाकिफ नहीं थे, अब उन सबका अपना सबसे पसंदा हीरो- क्रांतिकारी बन गया। अब भगतसिंह के विचार अधिक से अधिक जानने तथा भगतसिंह को देखने और बोलते हुए सुनने के लिए लोग अदालत की तरफ आने लगे।